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Dr. Rajendra Prasad डॉ. राजेन्द्र प्रसाद


   Dr. Rajendra Prasad,
जन्म- 3 दिसम्बर, 1884, जीरादेयू, बिहार, मृत्यु- 28 फ़रवरी, 1963, सदाकत आश्रम, पटना) भारत के प्रथम राष्ट्रपति थे। राजेन्द्र प्रसाद बेहद प्रतिभाशाली और विद्वान व्यक्ति थे। राजेन्द्र प्रसाद, भारत के एकमात्र राष्ट्रपति थे जिन्होंने दो कार्यकालों तक राष्ट्रपति पद पर कार्य किया।
जन्म :
बिहार प्रान्त के एक छोटे से गाँव जीरादेयू में 3 दिसम्बर, 1884 में राजेन्द्र प्रसाद का जन्म हुआ था। एक बड़े संयुक्त परिवार के राजेन्द्र प्रसाद सबसे छोटे सदस्य थे, इसलिए वह सबके दुलारे थे। राजेन्द्र प्रसाद के परिवार के सदस्यों के सम्बन्ध गहरे और मृदु थे। राजेन्द्र प्रसाद को अपनी माता और बड़े भाई महेन्द्र प्रसाद से बहुत स्नेह था। जीरादेयू गाँव की आबादी मिश्रित थी। मगर सब लोग इकट्ठे रहते थे। राजेन्द्र प्रसाद की सबसे पहली याद अपने हिन्दू और मुसलमान दोस्तों के साथ 'चिक्का और कबड्डी' खेलने की है। किशोरावस्था में उन्हें होली के त्योहार का इंतज़ार रहता था और उसमें उनके मुसलमान दोस्त भी शामिल रहते थे और मुहर्रम पर हिन्दू ताज़िये निकालते थे। 'राजेन बाबू' (राजेन्द्र प्रसाद) को गाँव के मठ में रामायण सुनना और स्थानीय रामलीला देखना बड़ा अच्छा लगता था। घर का वातावरण भी ईश्वर पर पूर्ण विश्वास का था। राजेन्द्र प्रसाद की माता बहुत बार उन्हें रामायण से कहानियाँ सुनातीं और भजन भी गाती थी। उनके चरित्र की दृढ़ता और उदार दृष्टिकोण की आधारशिला बचपन में ही रखी गई थी।
विवाह :
गाँव का जीवन पुरानी परम्पराओं से भरपूर था। इनमें से एक रिवाज था- बाल विवाह और परम्परा के अनुसार राजेन्द्र प्रसाद का विवाह भी केवल बारह वर्ष की आयु में हो गया था। यह एक विस्तृत अनुष्ठान था जिसमें वधू के घर पहुँचने में घोड़ों, बैलगाड़ियों और हाथी के जुलूस को दो दिन लगे थे। वर एक चांदी की पालकी में, जिसे चार आदमी उठाते थे, सजे-धजे बैठे थे। रास्ते में उन्हें एक नदी भी पार करनी थी। बरातियों को नदी पार कराने के लिए नाव का इस्तेमाल किया गया। घोड़े और बैलों ने तैरकर नदी पार की, मगर इकलौते हाथी ने पानी में उतरने से इंकार कर दिया। परिणाम यह हुआ कि हाथी को पीछे ही छोड़ना पड़ा और राजेन्द्र प्रसाद के पिता जी 'महादेव सहाय' को इसका बड़ा दुख हुआ। अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचने से दो मील पहले उन्होंने किसी अन्य विवाह से लौटते दो हाथी देखे। उनसे लेनदेन तय हुआ और परम्परा के अनुसार हाथी फिर विवाह के जुलूस में शामिल हो गए। किसी तरह से यह जुलूस मध्य रात्रि को वधू के घर पहुँचा। लम्बी यात्रा और गर्मी से सब बेहाल हो रहे थे और वर तो पालकी में ही सो गये थे। बड़ी कठिनाई से उन्हें विवाह की रस्म के लिए उठाया गया। वधू, राजवंशी देवी, उन दिनों के रिवाज के अनुसार पर्दे में ही रहती थी। छुट्टियों में घर जाने पर अपनी पत्नी को देखने या उससे बोलने का राजेन्द्र प्रसाद को बहुत ही कम अवसर मिलता था।
राजेन्द्र प्रसाद बाद में राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल हो गए। तब वह पत्नी से और भी कम मिल पाते थे। वास्तव में विवाह के प्रथम पचास वर्षों में शायद पति-पत्नी पचास महीने ही साथ-साथ रहे होंगे। राजेन्द्र प्रसाद अपना सारा समय काम में बिताते और पत्नी बच्चों के साथ जीरादेयू गाँव में परिवार के अन्य सदस्यों के साथ रहती थीं।
मातृभूमि के लिए समर्पित :
राजेन्द्र प्रसाद प्रतिभाशाली और विद्वान थे और कलकत्ता के एक योग्य वकील के यहाँ काम सीख रहे थे। राजेन्द्र प्रसाद का भविष्य एक सुंदर सपने की तरह था। राजेन्द्र प्रसाद का परिवार उनसे कई आशायें लगाये बैठा था। वास्तव में राजेन्द्र प्रसाद के परिवार को उन पर गर्व था। लेकिन राजेन्द्र प्रसाद का मन इन सब में नहीं था। राजेन्द्र प्रसाद केवल धन और सुविधायें पाने के लिए आगे पढ़ना नहीं चाहते थे। एकाएक राजेन्द्र प्रसाद की दृष्टि में इन चीज़ों का कोई मूल्य नहीं रह गया था। राष्ट्रीय नेता गोखले के शब्द राजेन्द्र प्रसाद के कानों में बार-बार गूँज उठते थे।
राजेन्द्र प्रसाद की मातृभूमि विदेशी शासन में जकड़ी हुई थी। राजेन्द्र प्रसाद उसकी पुकार को कैसे अनसुनी कर सकते थे। लेकिन राजेन्द्र प्रसाद यह भी जानते थे कि एक तरफ देश और दूसरी ओर परिवार की निष्ठा उन्हें भिन्न-भिन्न दिशाओं में खींच रही थी। राजेन्द्र प्रसाद का परिवार यह नहीं चाहता था कि वह अपना कार्य छोड़कर 'राष्ट्रीय आंदोलन' में भाग लें क्योंकि उसके लिए पूरे समर्पण की आवश्यकता होती है। राजेन्द्र प्रसाद को अपना रास्ता स्वयं चुनना पड़ेगा। यह उलझन मानों उनकी आत्मा को झकझोर रही थी।
राजेन्द्र प्रसाद ने रात ख़त्म होते-होते मन ही मन कुछ तय कर लिया था। राजेन्द्र प्रसाद स्वार्थी बनकर अपने परिवार को सम्भालने का पूरा भार अपने बड़े भाई पर नहीं डाल सकते थे। राजेन्द्र प्रसाद के पिता का देहान्त हो चुका था। राजेन्द्र प्रसाद के बड़े भाई ने पिता का स्थान लेकर उनका मार्गदर्शन किया था और उच्च आदर्शों की प्रेरणा दी थी। राजेन्द्र प्रसाद उन्हें अकेला कैसे छोड़ सकते थे? अगले दिन ही उन्होंने अपने भाई को पत्र लिखा, मैंने सदा आपका कहना माना है और यदि ईश्वर ने चाहा तो सदा ऐसा ही होगा। दिल में यह शपथ लेते हुए कि अपने परिवार को और दु:ख नहीं देंगे उन्होंने लिखा, मैं जितना कर सकता हूँ, करूँगा और सब को प्रसन्न देख कर प्रसन्नता का अनुभव करूँगा। लेकिन उनके दिल में उथल-पुथल मची रही। एक दिन वह अपनी आत्मा की पुकार सुनेंगे और स्वयं को पूर्णतया अपनी मातृभूमि के लिए समर्पित कर देंगे। यह युवक राजेन्द्र थे जो चार दशक पश्चात 'स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति' बने।
इंग्लैण्ड जाने का सपना :
बहुत बड़े परिवार में रहने के कारण शुरू से ही राजेन्द्र प्रसाद में अन्य सदस्यों का ध्यान रखने और निस्स्वार्थता का गुण आ गया था। छात्रकाल के दौरान उनके मन में आई.सी.एस. की परीक्षा देने के लिए इंग्लैण्ड जाने की बड़ी इच्छा थी। लेकिन उन्हें भय था कि परिवार के लोग इतनी दूर जाने की अनुमति कभी नहीं देंगे। इसलिए उन्होंने बहुत ही गुप्त रूप से जहाज़ में इंग्लैंण्ड जाने के लिए सीट का आरक्षण करवाया और अन्य सब प्रबन्ध किए। यहाँ तक की इंग्लैंण्ड में पहनने के लिए दो सूट भी सिलवा लिए। लेकिन जिसका उन्हें भय था वही हुआ। उनके पिताजी ने इस प्रस्ताव का बहुत ज़ोर से विरोध किया। राजेन्द्र प्रसाद ने बहुत अनिच्छा से इंग्लैंण्ड जाने का विचार छोड़ दिया। अन्य लोगों के विचारों के प्रति सम्मान का गुण पूरा जीवन राजेन्द्र प्रसाद के साथ रहा। वास्तव में राजेन्द्र प्रसाद के बचपन में विकसित सारे गुण जीवनभर उनके साथ रहे और उन्हें कठिनाइयों का सामना करने का साहस देते रहे।
बचपन से ही परिश्रमी :
स्कूल के दिन परिश्रम और मौज-मस्ती का मिश्रण थे। उन दिनों में यह परम्परा थी कि शिक्षा का आरंभ फ़ारसी की शिक्षा से किया जाए। राजेन्द्र प्रसाद पाँच या छह वर्ष के रहे होंगे जब उन्हें और उनके दो चचेरे भाइयों को एक मौलवी साहब पढ़ाने के लिए आने लगे। शिक्षा आरंभ करने वाले दिन पैसे और मिठाई बांटी जाती है। लड़कों ने अपने अच्छे स्वभाव वाले मौलवी साहब के साथ शैतानियाँ भी की मगर मेहनत भी कस कर की। वे सुबह बड़ी जल्दी उठ कर कक्षा के कमरे में पढ़ने के लिए बैठ जाते। यह सिलसिला काफ़ी देर तक चलता और बीच में उन्हें खाने और आराम करने की छुट्टी मिलती। वास्तव में यह कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि इतने छोटे बच्चे बहुत देर तक ध्यान लगा कर पढ़ाई कर सकें। ये विशेष गुण जीवनपर्यन्त राजेन्द्र प्रसाद में रहे और इन्हीं ने उन्हें विशिष्टता भी दिलाई।
विश्वविद्यालय की शिक्षा :
राजेन्द्र प्रसाद अपने नाज़ुक स्वास्थ्य के बावज़ूद भी एक गंभीर एवं प्रतिभाशाली छात्र थे और स्कूल व कॉलेज दोनों में ही उनका परिणाम बहुत ही अच्छा रहा। कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में राजेन्द्र प्रसाद प्रथम रहे और उन्हें तीस रुपये महीने की छात्रवृत्ति भी मिली। उन दिनों में तीस रुपये बहुत होते थे। लेकिन सबसे बड़ी बात थी कि पहली बार बिहार का एक छात्र परीक्षा में प्रथम आया था। उनके परिवार और उनके लिए यह एक गर्व का क्षण था। सन 1902 ई. में राजेन्द्र प्रसाद ने कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया। यह सरल स्वभाव और निष्कपट युवक बिहार की सीमा से पहली बार बाहर निकल कर कलकत्ता जैसे बड़े शहर में आया था। अपनी कक्षा में जाने पर वह छात्रों को ताकता रह गया। सबके सिर नंगे थे और वह सब पश्चिमी वेषभूषा की पतलून और कमीज़ पहने थे। उन्होंने सोचा ये सब एंग्लो-इंडियन हैं लेकिन जब हाज़िरी बोली गई तो उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि सबके नाम हिन्दुस्तानी थे।
राजेन्द्र प्रसाद का नाम हाज़िरी के समय नहीं पुकारा गया तो वह बहुत हिम्मत करके खड़े हुए और प्राध्यापक को बताया। प्राध्यापक उनके देहाती कपड़ों को घूरता ही रहा। वह सदा की तरह कुर्ता-पाजामा और टोपी पहने थे।
'ठहरो। मैंने अभी स्कूल के लड़कों की हाज़िरी नहीं ली,' प्राध्यापक ने तीखे स्वर में कहा।
वह शायद उन्हें एक स्कूल का लड़का समझ रहा था।
राजेन्द्र प्रसाद ने हठ किया कि वह प्रेसीडेंसी कॉलेज के छात्र हैं और अपना नाम भी बताया।
अब कक्षा के सब छात्र उन्हें घूरने लगे क्योंकि यह नाम तो उन दिनों सबकी ज़ुबान पर था। उस वर्ष राजेन्द्र प्रसाद नाम का लड़का विश्वविद्यालय में प्रथम आया था। ग़लती को तुरन्त सुधारा गया और इस तरह राजेन्द्र प्रसाद का कॉलेज जीवन आरम्भ हुआ।
आत्मविश्वासी राजेन्द्र :
वर्ष के आख़िर में एक बार फिर ग़लती हुई। जब प्रिंसिपल ने एफ.ए. में उत्तीर्ण छात्रों के नाम लिए तो राजेन्द्र प्रसाद का नाम सूची में नहीं था। राजेन्द्र प्रसाद को अपने कानों पर विश्वास नहीं आया। क्योंकि इस परीक्षा के लिए उन्होंने बहुत ही परिश्रम किया था। आख़िर वह खड़े हुए और सम्भावित ग़लती की ओर संकेत किया।
प्रिंसिपल ने तुरन्त उत्तर दिया कि वह फ़ेल हो गए होंगे। उन्हें इस मामले में तर्क नहीं करना चाहिए।
'लेकिन, लेकिन सर', राजेन्द्र प्रसाद ने हकलाकर, घबराते हुए कहा। इस समय उनका हृदय धक-धक कर रहा था।
'पाँच रुपया ज़ुर्माना' क्रोधित प्रिंसिपल ने कहा। राजेन्द्र प्रसाद ने साहस कर फिर बोलना चाहा।
'दस रुपया ज़ुर्माना', लाल-पीला होते हुए प्रिंसिपल चिल्लाया।
राजेन्द्र प्रसाद बहुत घबरा गए। अगले कुछ क्षणों में ज़ुर्माना बढ़कर 25 रुपये तक पहुँच गया। एकाएक हैड क्लर्क ने उन्हें पीछे से बैठ जाने का संकेत किया। एक ग़लती हो गई थी। पता चला कि वास्तव में राजेन्द्र प्रसाद कक्षा में प्रथम आए थे। उनके नम्बर उनकी प्रवेश परीक्षा से भी इस बार बहुत अधिक थे। प्रिंसिपल नया था। इसलिए उसने इस प्रतिभाशाली छात्र को नहीं पहचाना था। राजेन्द्र प्रसाद की छात्रवृत्ति दो वर्ष के लिए बढ़ाकर 50 रुपया प्रति मास कर दी गई। उसके बाद स्नातक की परीक्षा में भी उन्हें विशिष्ट स्थान मिला। यद्यपि राजेन्द्र प्रसाद सदा विनम्र बने रहे मगर उन्होंने यह महत्त्वपूर्ण पाठ पढ़ लिया था कि अपने संकोच को दूर कर स्वयं में आत्मविश्वास पैदा करना ही होगा। अपने कॉलेज के दिनों में राजेन्द्र प्रसाद को सदा योग्य अध्यापकों का समर्थन मिला, जिन्होंने अपने छात्रों को आगे बढ़ने की प्रेरणा एवं उच्च आचार-विचार की शिक्षा दी।
स्वदेशी आंदोलन :
राजेन्द्र प्रसाद भी नये आंदोलन की ओर आकर्षित हुए। अब पहली बार राजेन्द्र प्रसाद ने पुस्तकों की तरफ़ कम ध्यान देना शुरू किया। स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन ने राजेन्द्र प्रसाद के छात्रालय के छात्रों को बहुत प्रभावित किया। उन्होंने सब विदेशी कपड़ों को जलाने की क़सम खाई। एक दिन सबके बक्से खोल कर विदेशी कपड़े निकाले गये और उनकी होली जला दी गई। जब राजेन्द्र प्रसाद का बक्सा खोला गया तो एक भी कपड़ा विदेशी नहीं निकला। यह उनके देहाती पालन-पोषण के कारण नहीं था। बल्कि स्वतः ही उनका झुकाव देशी चीज़ों की ओर था। गोपाल कृष्ण गोखले ने सन् 1905 में 'सर्वेन्ट्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी' आरम्भ की थी। उनका ध्येय था ऐसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक तैयार करना जो भारत में संवैधानिक सुधार करें। इस योग्य युवा छात्र से वह बहुत प्रभावित थे और उन्होंने राजेन्द्र प्रसाद को इस सोसाइटी में शामिल होने के लिये प्रेरित किया। लेकिन परिवार की ओर से अपने कर्तव्य के कारण राजेन्द्र प्रसाद ने गोखले की पुकार को उस समय अनसुना कर दिया। लेकिन वह याद करते हैं,- 'मैं बहुत दुखी था।' और जीवन में पहली बार बी. एल. की परीक्षा में कठिनाई से पास हुए थे।
क़ानून में मास्टर डिग्री :
वह अब वक़ालत की दहलीज पर खड़े थे। उन्होंने जल्दी ही मुक़दमों को अच्छी प्रकार और ईमानदारी से करने के लिये ख्याति पा ली। सन् 1915 में क़ानून में मास्टर की डिग्री में विष्टिता पाने के लिए राजेन्द्र प्रसाद को सोने का मेडल मिला। इसके बाद उन्होंने क़ानून में डॉक्टरेट भी कर ली। अब वह डा. राजेन्द्र प्रसाद हो गये। इन वर्षों में राजेन्द्र प्रसाद कई प्रसिद्ध वक़ीलों, विद्वानों और लेखकों से मिले। राजेन्द्र प्रसाद भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य भी बन गये। राजेन्द्र प्रसाद के मस्तिष्क में राष्ट्रीयता ने जड़े जमा ली थी।
चम्पारन और ब्रिटिश दमन :
ब्रिटिश शासक के अन्याय के प्रति हमारा दब्बूपन अब विरोध में बदल रहा था। सन् 1914 में प्रथम विश्व युद्ध आरम्भ होने पर लोगों के लिये नई कठिनाइयाँ उत्पन्न हो गई। जैसे- भारी कर, खाद्य पदार्थों की कमी कीमतों का बढ़ना और बेरोज़गारी। सुधार का कोई संकेत नहीं मिल रहा था। जब कलकत्ता में सन् 1917 के दिसम्बर माह में 'ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी' का अधिवेशन हुआ तो भारत में उथल-पुथल मची हुई थी। राजेन्द्र प्रसाद भी इस अधिवेशन में शामिल हुए। उनके साथ ही एक सांवले रंग का दुबला-पतला आदमी बैठा था मगर उसकी आँखें बड़ी तेज़ और चमकीली थी। राजेन्द्र प्रसाद ने सुना था कि वह अफ़्रीका से आया है लेकिन अपने स्वाभाविक संकोच के कारण वह उससे बातचीत न कर सके। यह व्यक्ति और कोई नहीं महात्मा गांधी ही थे। वह अभी-अभी दक्षिण अफ़्रीका में सरकारी दमन के विरुद्ध संघर्ष करके भारत लौटे थे। राजेन्द्र प्रसाद को उस समय पता नहीं था कि वह सांवला पैनी आँखों वाला व्यक्ति ही उनके भविष्य के जीवन को आकार देगा।
गांधी जी ने अपना प्रथम प्रयोग बिहार के चम्पारन ज़िले में किया जहाँ कृषकों की दशा बहुत ही दयनीय थी। ब्रिटिश लोगों ने बहुत सारी धरती पर नील की खेती आरम्भ कर दी थी जो उनके लिये लाभदायक थी। भूखे, नंगे, कृषक किरायेदार को नील उगाने के लिये ज़बरदस्ती की जाती। यदि वे उनकी आज्ञा नहीं मानते तो उन पर जुर्माना किया जाता और क्रूरता से यातनाएँ दी जाती एवं उनके खेत और घरों का नष्ट कर दिया जाता था। जब भी झगड़ा हाई कोर्ट में पेश हुआ, तब-तब वास्तव में राजेन्द्र प्रसाद ने सदा बिना फ़ीस लिये इन कृषकों का प्रतिनिधित्व किया। लेकिन फिर भी वह निरन्तर जानवरों जैसी स्थिति में रहते आ रहे थे। गांधीजी को चम्पारन में हो रहे दमन पर विश्वास नहीं हुआ और वास्तविकता का पता लगाने वह कलकत्ता अधिवेशन के बाद स्वयं बिहार गये। महात्मा गांधी के साथ चम्पारन का एक कृषक नेता था। जो पहले उन्हें राजेन्द्र प्रसाद जी के घर पटना में ले आया। घर में केवल नौकर था। गांधीजी को एक किसान मुवक्किल समझकर उसने बड़ी रूखाई से उन्हें बाहर बैठने के लिये कहा। कुछ समय बाद गांधी जी अपनी चम्पारन की यात्रा पर चल दिये। नील कर साहब और यहाँ के सरकारी अधिकारियों को डर था कि गांधीजी के आने से गड़बड़ न हो जाये। इसलिये उन्हें सरकारी आदेश दिया गया कि तत्काल ज़िला छोड़ कर चलें जायें। गांधीजी ने वहाँ से जाने से इंकार कर दिया और उत्तर दिया कि वह आंदोलन करने नहीं आये। केवल पूछताछ से जानना चाहते हैं। बहुत बड़ी संख्या में पीड़ित किसान उनके पास अपने दुख की कहानियां लेकर आने लगे। अब उन्हें कचहरी में पेश होने के लिये कहा गया।
गांधी जी से भेंट :
बाबू राजेन्द्र प्रसाद की ख़्याति कि वह बहुत समर्पित कार्यकर्ता हैं, गांधी जी के पास पहुँच चुकी थीं। गांधी जी ने राजेन्द्र प्रसाद को चम्पारन की स्थिति बताते हुए एक तार भेजा और कहा कि वह तुरन्त कुछ स्वयंसेवकों को साथ लेकर वहाँ आ जायें। बाबू राजेन्द्र प्रसाद का गांधी जी के साथ यह पहला सम्पर्क था। वह उनके अपने जीवन में ही नहीं बल्कि भारत की राष्ट्रीयता के इतिहास में भी, एक नया मोड़ था। राजेन्द्र प्रसाद तुरन्त चम्पारन पहुँचे और गांधी जी में उनकी दिलचस्पी जागी। पहली बार मिलने पर उन्हें गांधी जी की शक्ल या बातचीत किसी ने भी प्रभावित नहीं किया था। हां, वह अपने नौकर का गांधी जी से किये दुर्व्यवहार से जिसके बारे में उन्होंने सुना था, बहुत दुखी थे।
सत्याग्रह की पहली विजय :
यह एक चमत्कार के समान था। गांधी जी का निडरता से होकर सत्य और न्याय पर अड़े रहने से सरकार बहुत प्रभावित हुई। मुक़दमा वापस ले लिया गया और वह अब पूछताछ के लिए स्वतंत्र थे। यहाँ तक की अधिकारियों को भी उनकी मदद करने के लिये कहा गया। यह सत्याग्रह की पहली विजय थी। स्वाधीनता संघर्ष में गांधी जी का यह महत्त्वपूर्ण योगदान था। सत्याग्रह ने हमें सिखाया कि निर्भय होकर दमनकारी के विरुद्ध अपने अधिकारों के लिए अहिंसात्मक तरीके से अड़े रहो।
राजेन्द्र प्रसाद चम्पारन आंदोलन के दौरान गांधीजी के वफ़ादार साथी बन गये। क़्ररीब 25,000 किसानों के बयान लिखे गये और अन्ततः यह काम उन्हें ही सौंप दिया गया। बिहार और उड़ीसा की सरकारों ने अन्ततोगत्वा इन रिपोर्टों के आधार पर एक अधिनियम पास करके चम्पारन के किसानों को लम्बे वर्षों के अन्याय से छुटकारा दिलाया। सत्याग्रह की वास्तविक सफलता लोगों के हृदय पर विजय थी। गांधीजी के आदर्शवाद, साहस और व्यावहारिक सक्रियता से प्रभावित होकर राजेन्द्र प्रसाद अपने पूरे जीवन के लिये उनके समर्पित अनुयायी बन गये। वह याद करते हैं, 'हमारे सारे दृष्टिकोण में परिवर्तन हो गया था...हम नये विचार, नया साहस और नया कार्यक्रम लेकर घर लौटे।' बाबू राजेन्द्र प्रसाद के हृदय में मानवता के लिये असीम दया थी। 'स्वार्थ से पहले सेवा' शायद यही उनके जीवन का ध्येय था। जब सन् 1914 में बंगाल और बिहार के लोग बाढ़ से पीड़ित हुए तो उनकी दयालु प्रकृति लोगों की वेदना से बहुत प्रभावित हुई। उस समय वह स्वयंसेवक बन नाव में बैठकर दिन-रात पीड़ितों को भोजन और कपड़ा बांटते। रात को वह निकट के रेलवे स्टेशन पर सो जाते। इस मानवीय कार्य के लिये जैसे उनकी आत्मा भूखी थी और यहीं से उनके जीवन में निस्स्वार्थ सेवा का आरम्भ हुआ।
भारत रत्न :
सन 1962 में अवकाश प्राप्त करने पर राष्ट्र ने उन्हें भारत रत्‍न की सर्वश्रेष्ठ उपाधि से सम्मानित किया। यह उस पुत्र के लिये कृतज्ञता का प्रतीक था जिसने अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर आधी शताब्दी तक अपनी मातृभूमि की सेवा की थी।
निधन :
अपने जीवन के आख़िरी महीने बिताने के लिये उन्होंने पटना के निकट सदाकत आश्रम चुना। यहाँ पर 28 फ़रवरी 1963 में उनके जीवन की कहानी समाप्त हुई। यह कहानी थी श्रेष्ठ भारतीय मूल्यों और परम्परा की चट्टान सदृश्य आदर्शों की। हमको इन पर गर्व है और ये सदा राष्ट्र को प्रेरणा देते रहेंगे।
         

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